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Monday, December 10, 2012

संग्राही साधू


संग्राही साधू

"अब ये क्या लेकर आ गए?" पुजारी बालगंगाधर पाण्डे की पत्नी बोली।
पुजारी अभी अभी लौट रहे थे गाँव के चौराहे पर अपनी रोज़ की बैठक से। रास्ते में लौटते वक़्त तार का एक गुच्छा मिला था जो लेते आये और उसे सुलझाते हुए बोले "अरे इससे तो बिलें और रसीदें इकट्ठा करने का वह गिनतारा जैसा बन जायेगा। वह पहला वाला भर जो गया हैं।"
बीवी शकल बना कर अन्दर चली गयी और अपने काम में व्यस्त हो गयी।

बालगंगाधर को इधर उधर गिरी हुई, छाँटी हुई, छोड़ी हुई चीजें इकट्ठा करने की आदत थी। वह मानते थे कि हर एक चीज़ या चीज़ का पुर्जा भी कभी न कभी काम में आता ही है। घर में उन्होंने एक अपना पिटारा बनाया था जिस में अपना सब कबाड़ रखते थे। कभी बोतल के नीचे बहुत से छेद  बना कर उसका फव्वारा बना लिया तो कभी चमकीली टाइल के एक टुकड़े से फ्रिज का संतुलन कर लिया या किसी डिब्बी के बिछड़े ढक्कन को झूला खींचने की डोर के पीछे लगा दिया। रास्ते में मिली चाबियों का गुच्छा तो इतना बड़ा हो चुका था जैसे हर ताले की चाबी हो उनके पास। चाय के कप का टुकड़ा भी आखिर में और कुछ नहीं तो शरीर का मैल घिस कर उतारने के काम आ जाता था।
          
पुजारिन इनकी यह आदत से चिढती थी, पर आखिर कब तक। अब तो उसने भी टोकना बंद कर दिया था। जवाब मिलता  "हर टुकड़ा, हर पुर्जा कहीं न कहीं आज नहीं तो कल फिट बैठ ही जाता हैं और ऐसा काम करता हैं जो और कोई लाख रुपये की चीज़ भी नहीं कर पाती।" 

और वैसे भी पुजारी के यह जुगाड़ कभी कभी पत्नी के बड़े काम भी आते थे।  सोचती "खैर जाने दो, घर का एक कोना ही तो देना हैं।" और इस बहाने उनका का थोडा वक़्त भी कट जाता। दोनों अकेले ही रहेते थे। एक बेटा था जो शहर में डाक्टरी पढ़ता था। दो तीन महीनों में एक बार घर आता था। पुजारी ने जीवन भर इस मंदिर में पूजा कर के अपना घर पाला था। मंदिर के परिसर में ही दो कमरे थे वही उनका आशियाना था।  बेटे को अच्छा पढ़ाने की पहेले सी ही ख्वाइश थी और उसे डाक्टरी में भेज कर बड़ा ही गर्व महसूस करते थे।

बेटा जब भी घर आता शहर से अपने माँ बाप के लिए कुछ न कुछ लेकर आता था। पिछली बार अपनी माँ के लिए न चिपकने वाला तवा लाया था डोसा बना ने के लिए। हर हफ्ते माँ उस पर ही डोसा पकाती थी। पिता को यह वानगी अच्छी लगने लगी थी। मानो अब तो ये दक्षिणी व्यंजन की आदत सी हो गयी थी। पर पुजारिन को एक ही तकलीफ थी। लकड़ी का हत्था जो तवे के साथ आया था उससे डोसा ठीक से निकलता नहीं था और स्टील का कड्चा इस्तेमाल करने पर तवे की काली वर्क ख़राब हो जाती थी।

एक दिन बालगंगाधर अपने किसान मित्र के साथ उसके खेतो के चक्कर लगाने के बाद लौट कर अपने घर के बाहर बड़े पत्थर पर कुछ घिस रहे थे जो उनको रास्ते में मिला था। दिखने में पतले सफ़ेद पत्थर जैसा ही था| आगे से चौड़ा और पीछे से छोटा। घिस कर सुडोल बनाने के बाद अच्छे से धो कर बीवी को थमा दिया। बोले "ये लो इससे तुम्हारा डोसा अच्छे से उतरेगा। " पत्नी ने निरिक्षण कर के कपडे से पोछ कर रसोई घर में रख लिया। अगले सप्ताह जब उसका इस्तेमाल किया तो पता चला की अब डोसा तवे से निकलना कितना तेज और आसान हो गया हैं। दोनों ने मझे से खूब डोसे खाए। अगले महीने जब बेटा घर आया तो उसे भी खिलाये। माँ ने बाकी का साम्भार बेटे को कटोरी में पिरोस्ते हुए बताया की कैसे न लकड़ी का कड्चा काम आया और न ही लोहे का। पर यह रास्ते में मिला एक पतला पत्थर कितना उपयोगी साबित हुआ। पुजारी कुरसी में बैठे बैठे मन ही मन मुस्कुरा रहे थे अपनी परोक्ष प्रशंसा सुन कर। जब माँ ने बेटे की थाली में आखरी डोसा डाला तब अचानक कडचा अपने हाथ में लेकर वह बोल उठा "अरे माँ यह क्या कर दिया? यह तो किसी जानवर की हड्डी लगती हैं|"

-Yours truly.